भीड़

एक भीड़ थी। आगे बढ़ी जा रही थी। उसे समझ नही आ रहा था वो कैसे इस भीड़ का हिस्सा बन गया। कुछ ही समय पहले तो वो अकेला खाट पे लेटा हुआ आसमान को निहार रहा था। अपनी दुनिया में मस्त, समाज से दूर, ज़िम्मेदारियों से बचते बचाते, अपनी ही धुन को सुनते हुए दिन काट रहा था। काफी समय व्यतीत होता था आत्म चिंतन में। कुछ पल दीन दुनिया के बारे में भी विचार कर लेता था। पर किसी से ज्यादा मतलब था नहीं। महत्वाकांक्षाएं ज्यादा थी नहीं। जो रास्ता चुना था वो शांत और सरल था। कब वो रास्ता बदला और कब घाटियों की टेढ़ी मेढ़ी राह की जगह सीधे सपाट सड़क ने ले ली, वो समझ नहीं पाया। अब सड़क से उठती हुई मई की भीषण गर्मी में उसे चीज़ें धुंधली नज़र आ रही थी। एक जगह खड़ा होना भी तो मुश्किल था क्यूंकि भीड़ की प्रकृति में रुकना कहाँ लिखा था।

“आँख खोलने की उम्र में आँख बंद कर के बैठा हुआ है”

कहाँ सुना था उसने ये? घर पे? आश्रम में? या गंगा घाट पे बैठे ये आवाज़ पड़ी थी उसके कानो में? क्यों ये बात उसको इतनी गहरी लगी थी? अमूमन सुनने वाले तो यही कहते हैं की उस समय उसको ये सुनना था इसलिए उसने उसको सुना। कोई बड़ी बात नहीं की उसने ये किसी से सुना ना हो, बस वहम हुआ हो उसको। अक्सर इंसान अपने फैसले की ज़िम्मेदारी खुद ना लेकर किसी और पे डाल देना चाहता है। उसने ही कहा था मुझे ऐसा करने को, मैं तो अच्छा ख़ासा खुश था उधर। आसान है ऐसा करना ना। कौन ले ज़िम्मेदारी।

अब सोचने का समय कहाँ है। भीड़ आदेश दे रही है। इधर ही तरफ बढ़ो। उधर की तरफ भागो। ये देखो ये कौन सी दूसरी भीड़ नज़र आ रही है इससे लड़ जाओ। उधर देखो वो अकेला घूम रहा है उसे भीड़ में मिला लो। किसी भी हालत मे रुको मत। रुकने वाले की इस भीड़ में और इस संसार में कोई जगह नहीं है। बढ़ते रहो। लड़ते रहो। यही तुम्हारा धर्म है। यही तुम्हारा कर्म है।

हाथ में लगा घाव अब नासूर बनने लगा है। कहीं बैठ कर अगर वो इस पर थोड़ी दवा लगा ले तो ठीक हो जाएगा। पर ये भीड़ उसके लिए रुकेगी नहीं। वो पीछे छूट जाएगा। अकेले रहने में अब डर लगता है। अगर रुकना है तुम्हे, अलग जाना है तुम्हे तो बेशक जाओ, भीड़ रोकेगी नहीं तुम्हे। पर भूलना मत की जब दूसरी भीड़ के हत्थे चढ़ोगे तुम तो कोई होगा नहीं तुम्हारे साथ। फिर ना आना हमारे पास मदद मांगने।

अकेले रहने की अब आदत नहीं है। बहुत कुछ भूल गया है वो। क्या क्या भुला है ये तक भी भूल गया है वो।

कौन हूँ मैं ? कहाँ से आया यहां ? कहाँ जाऊं मैं ?

कंधे पर उसके किसी ने मजबूत हाथ रखा। हम समझते हैं तुम्हारे अंतर्द्वंद को। पर अब कोई और रास्ता नहीं है। यहां भीड़ ही भीड़ है। इस भीड़ की भीड़ में अकेले जाओगे तो ख़त्म हो जाओगे। यहां “मैं” की कोई जगह नहीं है। तुम भीड़ हो और भीड़ तुम हो। अब यही तुम्हारी पहचान है।