पहचान
हमेशा से मेरी एक ही ख्वाहिश थी – अपना नाम उस खास सूची में देखना। और यह सूची समय के साथ बदलती रही, लेकिन उस सूची में अपना नाम देखने की इच्छा, और यह अहसास कि जीवन में इससे बढ़कर कुछ और नहीं चाहिए, हमेशा एक समान रहा। पहले यह बोर्ड परीक्षाओं की मेरिट लिस्ट थी। फिर प्रवेश परीक्षाओं की शॉर्टलिस्ट। फिर प्लेसमेंट्स, प्रमोशन्स। हर बार कोई न कोई सूची होती है। हमेशा कहीं न कहीं, किसी न किसी चीज़ की एक सूची रहेगी। और मुझे यकीन है कि इस जीवन के बाद भी, अगले चरण के लिए भी कोई न कोई सूची जरूर होगी।
लेकिन इस समय मैं इन सबका मतलब समझने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। मैंने यह कई बार किया है और जीवन जैसा है, उसे वैसे ही स्वीकार लिया है। अभी मैं उन दिनों के बारे में सोच रहा हूँ, जब पढ़ाई और परीक्षाएँ थीं। वह समय जब किसी भी तरह का कोई फ़िल्टर नहीं था। जो भी महसूस करता, उसे खुलकर व्यक्त करता। बोलकर या लिखकर। मेरी पहचान वही थी जो मैंने कहा और लिखा। लेकिन फिर, जब कॉलेज के बाहर की ज़िंदगी में कदम रखा, तो मैंने कई नई पहचानें अपनानी शुरू कर दीं।
सच्चा होना? समाज के नियमों के अनुसार जीना? कौन-सा पैमाना यह तय करता है कि इनमें से क्या बेहतर है? क्या मुझे इस पर विचार करना चाहिए? हाँ, मुझे करना चाहिए, नहीं तो इसका मतलब ही क्या है।
“पहचान” – इस शब्द का अर्थ तो हम समझते हैं , लेकिन इसकी गहराई को समझना उतना आसान नहीं है। हम कौन हैं? हम क्या दिखाना चाहते हैं, और क्या छिपाना? क्या हमारी असली पहचान वही है जो हम खुद को मानते हैं, या वो है जो समाज हमें मानता है?
बचपन में हमारी पहचान शायद हमारे नाम, हमारे परिवार, और स्कूल की उपलब्धियों तक सीमित होती है। जैसे-जैसे बड़े होते हैं, पहचान के दायरे बढ़ते जाते हैं। कभी-कभी यह किसी पद से जुड़ जाती है, कभी किसी कामयाबी से। समाज की अपेक्षाएँ, रिश्तों की माँगें और अपने सपनों की तलाश, इन सबके बीच हमारी पहचान कहीं खोने लगती है।
क्या हमारी पहचान वही है जो हमने अपने लिए चुनी है, या वो है जो समाज ने हम पर थोपी है? क्या हम असल में खुद को जानते हैं, या हमारी असली पहचान वह है जो हम दूसरों को दिखाना चाहते हैं? इन सवालों के जवाब आसान नहीं होते, लेकिन अपनी असली पहचान की तलाश शायद ज़िंदगी का सबसे बड़ा सफर है।